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Saturday, September 23, 2017

बूढ़ी होती जिन्दंगी

कभी जो थी सीने मे, आग,
वो अब पेट में धधकती हैं।
बूढ़ी होती जिन्दंगी,
कुछ यू रंग बदलती हैं।

कभी आँखों में आसमां समेटे थे हमने।
आज देह मेरी,
जमीं के टुकड़े को तरसती हैं।

कभी मौसमो के तूफान से
खेले थे हम।
आज ये आँखों से
सावन बरसती हैं।

बूढ़ी होती जिन्दंगी,
कुछ यू रंग बदलती हैं।

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