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Thursday, March 12, 2015

बेटियाँ

बेटियाँ जिद्दी होती ही हैं। 
हर पिता के लिए। 
क्योकि वही तो वे कर सकती हैं जिद। 
और उसे पूरी भी। 
और जब तुतला के वो गर माँगती भी है सितारे। 
कोई पिता असमर्थ नहीं होता। 
फड़फड़ाने देता हैं बेटी को अपने पंख। 
ताकि ऊची उड़ान भर सके। 
खुद जाके अपना आसमान ले आये। 
फिर एक दिन, चिड़िया उड जाये। 
किसी नए आसमान की तलाश में। 

पिता जानता हैं। 
बेटी की जिद। 
जिद नहीं होती। 
हौसलों की उड़ान होती हैं। 

और बेटी जानती हैं। 
उसकी जिद पूरी करना। 
पापा का तरीका हैं। 
प्यार जताने का। 

कुछ रिश्ते ऐसे होते ही हैं। 
जिन्हे शब्दों में पिरोया नहीं जाता। 
बस, गले लगाया जाता हैं। 

बेटियाँ जिद्दी होती ही हैं। 
हर पिता के लिए। 

Saturday, March 7, 2015

ऐ जिन्दंगी !

कहा चली गई तुम।
बड़ी शिद्दत से ढूंढता हूँ तुम्हे।
हर पल याद करता हूँ।
रोता हूँ।

जब साथ थी तुम।
आँखों में तारे।
होंठो पे मुस्कान।
दिल में अरमान थे।
कस के पकड़े था, में तुम्हे।
हर दुःख सह लेता था।

ऐ जिंदगी।
फिर लौट आओ।
फिर जिएंगे तुम्हे।
जो जीने लायक हैं।
चलेंगे साथ साथ।
बैंठेंगे फिर किसी आम के निचे।
कच्चा खट्टी कैरी , नमक लगाके फिर खाएंगे।
नहायेंगे फिर से उसी नदी में।
चलेंगे फिर शाम को किसी मंदिर।
बजायेंगे घंटिया, प्रसाद खाने के लिए।
खेतो में दौड़ेंगे।
भागेंगे तितलियों के पीछे।
एक तेरी वाली , एक वो पिली सी , मेरी वाली।
सोयेंगे खुली छत पर।
गर्मियों में उन , ठंडे से बिस्तरों पर।
लौट मारते हुए।
और हर रात , हर बच्चे को शंहंशाह बना देती हैं।
अपने सारे तारे मोती लुटा के।
करेंगे अपने सितारे से बात।
बिन शब्दों के।
और डूब जायेंगे उन्ही के सपनो में।

तुम सुन रही हो न !
आ जाओ न फिर से।
वादा करता हूँ।
नहीं जाऊंगा शहर, तुझे छोड़ के।
नहीं बनूँगा "सभ्य" फिर से।
नहीं देखूंगा किसी और की नजर से खुद को।
नहीं भागूँगा किसी मरीचिका के पीछे।
नहीं बनुगा चतुर।
मैं बुद्दू ही ठीक हूँ।
देखो न।
मैं पहले जैसा ही हो गया हूँ।
दुनिया फिर से पागल समझती हैं।
बाट देता हूँ फिर से, सारी खुशिया।
नहीं रखता तिजोरी में संभालकर।
फिर से समंदर किनारे रंग बिरंगे कंकड़ ढूंढता हूँ।
देखता हूँ लहरो को बनते , फिर बिखरते।
सुनता हूँ उनका कृन्दन।
मैं फिर से तुम सा हो गया हूँ।


अब तो आ जाओ न।
तुम्हे जोर से गले लगाना चाहता हूँ।
मोती जो संभाले।
तेरे काँधे के लिए।
देना चाहता हूँ

कहा चली गई हो तुम।
आती क्यों नहीं।
बड़ी शिद्दत से ढूंढता हूँ तुम्हे।
हर पल याद करता हूँ।
रोता हूँ।
मैं बहुत रोता हूँ।
ऐ जिन्दंगी !

Monday, March 2, 2015

शून्यता


शून्य का अपना कोई मतलब नहीं होता। 
यही उसकी बैचैनी भी हैं। 
खोजता हैं आदमी इसीलिए।
अपने होने का अर्थ। 

कभी प्रकति, कभी लोगो से। 
बनाता हैं रिश्ते, करता हैं प्रेम।  
खुद को लुटाता हैं। 
शायद दो शून्य मिलकर। 
शून्य से कुछ ज्यादा हो जाये। 

जैसे कृष्ण - राधा। 
जैसे शिव - सती। 
एक दूसरे के बिना। 
अधूरे से। 

तुम गणित में मत उलझना। 
शून्य और शून्य मिलकर। 
शून्य नहीं होता,
जिंदगी में। 

उसे पूर्ण कहते हैं। 

एक शून्य तलाश करता हैं। 
अपने माने, पाने की। 
पूर्ण होने की। 
फिर, बुद्ध हो जाता हैं।  
यही जीवन यात्रा हैं।