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Tuesday, June 2, 2015

जन्मदिन मुबारक : कुछ जीवन अनुभव .


छोटे भाई का जन्मदिन हैं , कुछ लिख कर भेजा हैं। 
  1. कभी झूठ नहीं बोलना , जब तक वो किसी बड़े भले की लिए न हो। 
  2. ना कहना सीखना उन कामो के लिए, जो करना नहीं चाहते या कर नहीं सकते। 
  3. साल में कम से कम ,१० अच्छी किताबे पढूंगा। अंग्रेजी की भी, नहीं आती तो अंग्रेजी सीखूंगा। 
  4. साल में २१ दिन ध्यान को दूंगा , हो सके तो आश्रम जाकर। 
  5. साल में एक बार दूरस्थ यात्रा। 
  6. चर्बी / वजन कम करूँगा और हर दूसरे -तीसरे दिन , योग , तेज चलना और मसल का व्यवयाम। 
  7. नया काम शुरू करने से बेहतर हैं , किसी रुके काम को पहले ख़त्म करना। 
  8. अपने दोस्त और मासूम आत्माए जिन्हे मदद की जरुरत हैं, उनकी मदद करना और बदले में कोई भी अपेक्षा नहीं रखना। 
  9. जिन्होंने मदद की, उनका धन्यवाद करना। 
  10. महीने में किसी एक रिश्तेदार / दोस्त को अचानक फ़ोन करना। 
  11. परिवर्तन अच्छा हैं। खुद करे तो सबसे अच्छा। 
  12. जीवन हर रोज नया शुरू होता हैं।  याददाश्त उसे पुराना बताती हैं। भूल जाओ कचरे को या कैथार्सिस से फेक दो बाहर।
  13. जितना हो सके डेटा और तथ्यों से मूल्यांकन करना। 
  14. कौन कह रहा हैं नहीं, बल्कि क्या कह रहा हैं। क्या कह रहा हैं नहीं, बल्कि क्या कर रहा हैं , क्या कर रहा हैं नहीं , बल्कि क्या हो रहा हैं। कान से बहुत ज्यादा , आँखे बताती हैं। 
  15. स्नेह , मोह से बहुत ज्यादा मूल्यवान हैं। 
  16. कोई एक आर्ट सीखना, कुछ भी।  तबला , वायलिन, सैक्सोफोन , बांसुरी या कुछ भी। आंकड़े/व्यवसाय/विज्ञानं  जीवन का निर्वाह करते हैं, उसे सरल बनाते हैं।  कला जीवन से प्रेम हैं, लग्जरी हैं। ओवरफ्लो हैं। अज्ञात के प्रति प्रेम और समर्पण हैं। 
आज इतना ही। 
राहुल 

                              Sunday, May 24, 2015

                              जीवन


                              कब कोई कोरे पन्नो को पढ़ पाता हैं।
                              कब कोई ख़ामोशी को सुन पाता हैं।

                              शोरगुल , भीड़ और आपाधापी के बीच।
                              भीतर एक सन्नाटा हैं।

                              लिखते लिखते यु ही।
                              अश्क अक्सर ढल जाते हैं।

                              जीवन भागता रहता हैं।
                              क्या हम समझ पाते हैं.

                              -राहुल

                              Saturday, May 23, 2015

                              इन्तजार


                              फिर से कलम उठा।
                              थोड़ी सी स्याही भरता हूँ।
                              बहुत दिनों से सोचता हूँ।
                              कोई खत लिखता हूँ।

                              लिखूंगा , आप कैसे हैं।
                              याद करता हूँ।
                              अब, आप जवाब नहीं देते।
                              न ही मिलने आते हैं।
                              बहुत याद करता हूँ।
                              आपको और उन दिनों को.

                              खत सिर्फ शब्द नहीं।
                              नमी भी साथ ले जाते हैं.
                              लिखते लिखते यु ही ।
                              अश्क अक्सर ढल जाते हैं।
                              और जो समझता हैं.
                              वो उसे भी महसूस कर लेता हैं।
                              शायद, कई खत आज तक।
                              पुरे पढ़े ही नहीं गए।
                              वो आज भी इन्तजार करते हैं।
                              कमरे के किसी कोने में।
                              कोई आएगा और।
                              समझेगा , उसमे बसी ऊष्मा और नमी को।
                              खतो को ठिकाने ही नही.
                              अक्सर, पूरा पढ़ने वाले भी नसीब नहीं होते।

                              फिर भी, बहुत दिनों से सोचता हूँ।
                              कोई खत लिखता हूँ।

                              लिख देता हूँ।
                              सब कुछ।
                              जो महसूस करता हुँ.
                              जजबातों से भर देता हूँ।
                              यह भी लिख देता हूँ ,
                              की, आप के जवाब का इन्तजार करूँगा।

                              फिर आता हूँ, खत के सबसे मुश्किल हिस्से में।
                              वहा पता लिखना होता हैं.
                              वो तो मुझे नहीं पता।
                              किसे लिखू , जो समझ लेगा।
                              देर तक सोचता हूँ, रोता हूँ।
                              फिर इस खत को भी।
                              सरका देता हूँ।
                              अलमारी के किसी कोने में रखे।
                              ख़तो के ढेर की और।
                              जो आज भी अपने पते के।
                              इन्तजार में हैं।
                              पढ़ने वाले का रास्ता देखते हैं।

                              कुछ ख़त जो समझे ही नहीं गए।
                              कुछ इंसा जो पढ़े ही नहीं गए।
                              कुछ इंसा और कुछ खतो का।
                              शायद यही नसीब हैं।
                              इन्तजार।
                              एक अंतहीन इन्तजार।
                              -राहुल

                              Thursday, March 12, 2015

                              बेटियाँ

                              बेटियाँ जिद्दी होती ही हैं। 
                              हर पिता के लिए। 
                              क्योकि वही तो वे कर सकती हैं जिद। 
                              और उसे पूरी भी। 
                              और जब तुतला के वो गर माँगती भी है सितारे। 
                              कोई पिता असमर्थ नहीं होता। 
                              फड़फड़ाने देता हैं बेटी को अपने पंख। 
                              ताकि ऊची उड़ान भर सके। 
                              खुद जाके अपना आसमान ले आये। 
                              फिर एक दिन, चिड़िया उड जाये। 
                              किसी नए आसमान की तलाश में। 

                              पिता जानता हैं। 
                              बेटी की जिद। 
                              जिद नहीं होती। 
                              हौसलों की उड़ान होती हैं। 

                              और बेटी जानती हैं। 
                              उसकी जिद पूरी करना। 
                              पापा का तरीका हैं। 
                              प्यार जताने का। 

                              कुछ रिश्ते ऐसे होते ही हैं। 
                              जिन्हे शब्दों में पिरोया नहीं जाता। 
                              बस, गले लगाया जाता हैं। 

                              बेटियाँ जिद्दी होती ही हैं। 
                              हर पिता के लिए। 

                              Saturday, March 7, 2015

                              ऐ जिन्दंगी !

                              कहा चली गई तुम।
                              बड़ी शिद्दत से ढूंढता हूँ तुम्हे।
                              हर पल याद करता हूँ।
                              रोता हूँ।

                              जब साथ थी तुम।
                              आँखों में तारे।
                              होंठो पे मुस्कान।
                              दिल में अरमान थे।
                              कस के पकड़े था, में तुम्हे।
                              हर दुःख सह लेता था।

                              ऐ जिंदगी।
                              फिर लौट आओ।
                              फिर जिएंगे तुम्हे।
                              जो जीने लायक हैं।
                              चलेंगे साथ साथ।
                              बैंठेंगे फिर किसी आम के निचे।
                              कच्चा खट्टी कैरी , नमक लगाके फिर खाएंगे।
                              नहायेंगे फिर से उसी नदी में।
                              चलेंगे फिर शाम को किसी मंदिर।
                              बजायेंगे घंटिया, प्रसाद खाने के लिए।
                              खेतो में दौड़ेंगे।
                              भागेंगे तितलियों के पीछे।
                              एक तेरी वाली , एक वो पिली सी , मेरी वाली।
                              सोयेंगे खुली छत पर।
                              गर्मियों में उन , ठंडे से बिस्तरों पर।
                              लौट मारते हुए।
                              और हर रात , हर बच्चे को शंहंशाह बना देती हैं।
                              अपने सारे तारे मोती लुटा के।
                              करेंगे अपने सितारे से बात।
                              बिन शब्दों के।
                              और डूब जायेंगे उन्ही के सपनो में।

                              तुम सुन रही हो न !
                              आ जाओ न फिर से।
                              वादा करता हूँ।
                              नहीं जाऊंगा शहर, तुझे छोड़ के।
                              नहीं बनूँगा "सभ्य" फिर से।
                              नहीं देखूंगा किसी और की नजर से खुद को।
                              नहीं भागूँगा किसी मरीचिका के पीछे।
                              नहीं बनुगा चतुर।
                              मैं बुद्दू ही ठीक हूँ।
                              देखो न।
                              मैं पहले जैसा ही हो गया हूँ।
                              दुनिया फिर से पागल समझती हैं।
                              बाट देता हूँ फिर से, सारी खुशिया।
                              नहीं रखता तिजोरी में संभालकर।
                              फिर से समंदर किनारे रंग बिरंगे कंकड़ ढूंढता हूँ।
                              देखता हूँ लहरो को बनते , फिर बिखरते।
                              सुनता हूँ उनका कृन्दन।
                              मैं फिर से तुम सा हो गया हूँ।


                              अब तो आ जाओ न।
                              तुम्हे जोर से गले लगाना चाहता हूँ।
                              मोती जो संभाले।
                              तेरे काँधे के लिए।
                              देना चाहता हूँ

                              कहा चली गई हो तुम।
                              आती क्यों नहीं।
                              बड़ी शिद्दत से ढूंढता हूँ तुम्हे।
                              हर पल याद करता हूँ।
                              रोता हूँ।
                              मैं बहुत रोता हूँ।
                              ऐ जिन्दंगी !

                              Monday, March 2, 2015

                              शून्यता


                              शून्य का अपना कोई मतलब नहीं होता। 
                              यही उसकी बैचैनी भी हैं। 
                              खोजता हैं आदमी इसीलिए।
                              अपने होने का अर्थ। 

                              कभी प्रकति, कभी लोगो से। 
                              बनाता हैं रिश्ते, करता हैं प्रेम।  
                              खुद को लुटाता हैं। 
                              शायद दो शून्य मिलकर। 
                              शून्य से कुछ ज्यादा हो जाये। 

                              जैसे कृष्ण - राधा। 
                              जैसे शिव - सती। 
                              एक दूसरे के बिना। 
                              अधूरे से। 

                              तुम गणित में मत उलझना। 
                              शून्य और शून्य मिलकर। 
                              शून्य नहीं होता,
                              जिंदगी में। 

                              उसे पूर्ण कहते हैं। 

                              एक शून्य तलाश करता हैं। 
                              अपने माने, पाने की। 
                              पूर्ण होने की। 
                              फिर, बुद्ध हो जाता हैं।  
                              यही जीवन यात्रा हैं। 

                              Wednesday, February 11, 2015

                              Sunday, January 18, 2015

                              जड़ो से जुड़े रहने के मायने।


                              तुम मिया, गलत करते हो। 
                              सही सवाल पूछते हो। 
                              पर गफलत करते हो। 

                              जड़ो से जुड़े रहने के मायने। 
                              मौसमो से नहीं पूछे जाते। 
                              इस रंग बदलती दुनिया में। 
                              आज, गिरगिट भी शर्मशार हो जाते। 

                              ये प्रश्न उनसे पूछो। 
                              जो चिडिओ को दानापानी रखते हैं। 
                              बुजर्गो की निशानियाँ संभालते हैं। 
                              तिजोरिओ में मोती न हो मगर। 
                              आँखों में दूसरे के दर्द के अश्क रखते हैं। 

                              तुम मिया, गलत करते हो। 
                              सही सवाल पूछते हो। 
                              पर गफलत करते हो। 

                              जड़ो से जुड़े रहने के मायने। 
                              गर पूछना ही हैं। 
                              तो जाकर किसी बरगद के पेड़ से पूछो। 
                              वो भी चलता हैं, मियां, "आगे बड़ विकास" भी करता हैं। 
                              पर जड़े जमा कर चलता हैं। 
                              बना के रखता हैं, अस्तित्व से संपर्क।

                              तुम मिया, अक्सर गलत करते हो। 
                              सही सवाल पूछते हो। 
                              पर गफलत करते हो। 

                              -राहुल 

                              कितनी निर्दयी हो तुम.
















                              कभी रेत के मानिंद, मुट्ठी से फिसलती हो।
                              कभी गले लगाती हो।
                              कितनी निर्दयी हो तुम.
                              ऐ जिंदगी, क्यों सताती हो.

                              तुम माशूक की तरह हो।
                              सामने होती हो, वक्त को अक्सर रोक देती हो।
                              कोई गम नहीं, जब साथ नहीं।
                              टीस तब उठती हैं, जब तुम याद आती हो.

                              कितनी निर्दयी हो तुम.
                              ऐ जिंदगी, क्यों सताती हो.

                              बसंत की अंगड़ाई लेती दोपहर।
                              दूर कही, रेडियो पर, कोई गजल।
                              हवा का छु कर गुजरना।
                              और पत्तियों की सरसराहट।
                              दिल बैठ सा जाता हैं।
                              वक्त को थाम लेने का मन करता हैं।
                              पर रूकती कहा हो तुम।
                              बीतती जाती हो।

                              कितनी निर्दयी हो तुम.
                              ऐ जिंदगी, क्यों सताती हो.

                              -राहुल